देवत्व व् असुरत्व के द्वंद में प्रकृति, अपने पुरुषोत्तम के अवतरण की पृष्ठभूमि रच रही है

राम की प्रतिक्षा : संस्कृतियों में राम की एकरुपता के भावों को व्यक्त करती आलोक पाण्डेय जी का आलेख

देवत्व व असुरत्व के इस द्वंद, वैमनस्य व अंतर्विरोध के बीच प्रकृति, अपने अधिष्ठान पुरुषोत्तम के प्रतिष्ठित अवतरण की पृष्ठभूमि रच रही है। बहुत दिनों बाद संभवतः पहली बार अयोध्यावासियों को ही नहीं वरन् समस्त भूलोकवासियों को अपनी बिछड़ी संस्कृति और समस्त जनमानस में सन्निहित प्राण – लोकरंजन सहृदय राम के स्वागत का सुअवसर मिला है।

 

अयोध्या सरयू तट से सुदूर अपने देश की पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण की सीमाएं आक्रांताओं के बर्बर आक्रमणों को झेलने का संताप एवं विघटन के भयानक क्रूर घातों को एक समय के लिए छुपा दी है, आज अपने राम को पाकर आकंठ प्रसन्नता में डूब रही है। प्रसन्नता की विशाल व्यापकता में शंख, चक्र, गदा, पद्मपाणि, कौस्तुभकंठ, श्रीवत्सल, वनमाली, पीतांबर परिधान, रत्नमुकुटी, सर्वाभरणभूषित अपने आराध्य भगवान राम को निहार रही है। अपनी अंतश्चेतना में सचेष्ट भावमग्न बनी हुई है। सप्तसिंधु एवं हिमशिखर अचानक ध्यान में निमग्न हो गए हैं। सम्पूर्ण जनमानस अपने सम्मुख अचिंत्य ज्योति का आत्मसात् एवं अचिंत्य शक्ति का आलिंगन कर रहा है।

 

वर्षों से अपने राम के लिए प्रतिक्षारत महान देशवासी आज यही सोच रहे हैं – अतीत का सिरमौर, जगद्गुरू एवं चक्रवर्ती के अनगिनत पदों से अलंकृत अपना राष्ट्र आज इतना दयनीय क्यों हो गया है? दासता के भयानक बेड़ियों को तोड़कर भी आज अपने राम की स्वतंत्रता की दिव्य एवं भव्य अनुभूति से वंचित क्यों है? निश्चित रूप से सहस्त्रों अनुत्तरित प्रश्न हैं।

 

अपने असंख्य वीरपुत्रों को खोकर भी भारतमाता सहमी नहीं है, अपने विराट स्वरुप के लिए उद्यत हो चलीं हैं। भारतमाता ने अपने पुत्रों को ऐसा जगाया था कि वर्षों से क्रुरता का जिहादी स्तम्भ ढांचा ६ दिसम्बर १९९२ को धूल-धूसरित हो गया। सभी कारसेवकों ने मिलकर इस महान पुण्य प्रकल्प को साकार किया था, भयावह माथे के कलंक को मिटाया था, यह भारतभूमि के अस्तित्व के लिए अतिआवश्यक था। नवनीत सुकुमार से लेकर वृद्ध, समस्त विप्र एवं सन्त समाज ने अपने असंख्य प्राणों की आहुति देकर भी राम को कहां छोड़ा है?

 

९ नवम्बर २०१९ निर्णय की घड़ी नजदीक हो चली थी। भारतभूमि अपने राम के लिए सचेष्ट एवं सजग थी। आकाश स्वच्छ, निरभ्र था। वायु न अति शीतल न ही अति उष्ण। प्रकृति संतुलन में थी। आम्र वृक्षों में मंजरी के बीच छिपी कोकिल जब-तब सुरीली तान छेड़ देती थी। सारे पक्षी विविध स्वरों से अपने राम के लिए मधुर स्वरों का उच्चार कर रहे थे। इन्हें सुनकर ऐसा लग रहा था, जैसे कि सम्पूर्ण प्रकृति अपने सभी वृक्ष-वनस्पतियों, नदी-सरोवरों, पर्वत-झरनों एवं जीव-जंतुओं के परिकर के साथ मंगल गीत गाने में लगी है। सर्वत्र दिव्य नाद निनादित हो रहा था। सुखद् समीरण अपने मंद प्रवाह में सर्वत्र सुगंध प्रसारित कर रहा था।

 

सरयू तट पर बसी अयोध्या नगरी में प्रकृति की पावनता, पुण्यता, शुचिता, शुभता, सुषमा, सुरभि और सौंदर्य कुछ विशेष ही बढ़ गये थे। इस दिवस देवशक्तियों में पुलक, उत्साह व साहस अपने आप बढ़ गये। सभी संत समाज यही बारंबार कह रहा था – हे मेरे राम ! प्रकृति की अंतश्चेतना में दिव्य सभ्यता का परिवर्तन पनप रहा है, अब प्रकट होने को है । मुझे मेरे राम से कोई विलग नहीं कर सकता। रक्तपात के अतिरेक से बिलखती अयोध्या अपने राम को पाकर अब धन्य हो चली है।

 

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