जन मानस में जन गण मन को लेकर निरर्थक संदेह क्यों?

छायाचित्र सोर्स : इन्टरनेट

जनमानस में जन-गण-मन को लेकर निरर्थक उलझनें क्यों?  भारत स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। रविंद्र नाथ टैगोर द्वारा रचित यह सर्वप्रथम 27 th Dec 1911 के कांग्रेस अधिवेशन में गाया गया। यह उस अधिवेशन के दूसरे दिन गाया गया था जिसके एजेंडा में जॉर्ज पंचम का भारत आगमन पर स्वागत होना था। इसकी रिपोर्ट ब्रिटिश इंडिया प्रेस ने कुछ इस तरह तैयार कर दी।

 

“बंगाली कवि रविन्द्र नाथ टैगोर ने एक गीत गाया जो उन्होंने स्वयं लिखा था, बादशाह के स्वागत के लिए।(यह ख़बर स्टेट्समैन ने Dec28,1911 को छापी)! इसी तरह की मिलती-जुलती खबरें Englishman ने भी प्रकाशित कीं और Indian नामक अख़बार ने भी। यह खबरें पूरी तरह से भ्रमित करने को प्रकाशित की गई थीं। यह भ्रम इसलिए भी पैदा हुआ क्योंकि एक दूसरे गीत,”बादशाह हमारा” की भी प्रस्तुति हुई थी जिसे ‘रामभुज चौधरी’ने हिंदी में लिखा था। यह गीत ही जॉर्ज पंचम की प्रशंसा में लिखा और गाया गया था।

 

अमृता बाज़ार पत्रिका को देश 28,1911 में लिखना पड़ा था कि, “ कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन बांग्ला में लिखी गई एक प्रार्थना से शुरू हुई जो ईश्वर को स्मरण कर गाई गई। इसके बाद ही वह रेसोल्यूशन प्रस्तुत हुआ जिसमें जॉर्ज पंचम के प्रति निष्ठा की बात की गई। इसके बात एक दूसरा गाना गाया गया जो जॉर्ज पंचम के स्वागत में था। (Dec 28, 1911) फिर 10 Nov 1937 को टैगोर ने एक पत्र लिखा पुलिन बिहारी सेन को इस controversy को लेकर। बांग्ला में लिखा यह पत्र टैगोर की जीवनी रविन्द्र जीवनी में पृष्ठ संख्या 339 Vol.Il में अंकित है। यह जीवनी प्रभात कुमार मुख़र्जी ने लिखी है।

 

उस पत्र में यह स्पष्ट है कि किसी उच्च अधिकारी ने टैगोर से जॉर्ज पंचम के स्वागत हेतु गीत रचने को कहा था। टैगोर को यह प्रस्ताव आश्चर्य से भर गया और उन्हें बड़ी दुविधा और उथल-पुथल महसूस हुई। उसी उथल पुथल ने इस गीत को जन्म दे दिया जिसमें मैंने Jan Gan Man में भाग्य-विधाता (यानी कि ईश्वर) के उदघोष को दिखाया है। वही ईश्वर जिसने बड़ी मज़बूती से भारत के रथ की लगाम को पकड़ रखा है औऱ यह रथ आगे बढ़ता जाता है सीधे और घुमावदार रास्तों पर।

 

टैगोर ने यह जोर देकर इंगित किया है कि वह भाग्य-विधाता भारत के जन के बोध को पढ़ लेने वाला, वह शाश्वत मार्गदर्शक कोई जॉर्ज v, जॉर्ज Vl या कोई और जॉर्ज नहीं हो सकता। रविन्द्रनाथ टैगोर ने यह भी लिखा कि मेरे उस अधिकारी मित्र को भी यह बात समझ आ गई थी। वह निःसंदेह ब्रिटिश शासन का प्रशंसक था पर इतनी समझदारी उसके अंदर अवश्य थी।

 

यह तो राष्ट्र-गान और टैगोर की बात हुई। जहाँ तक मेरा और मेरे जैसे और लोगों का, आम-जन का सवाल है, टैगोर यह बातें साफ़ न भी करें तो राष्ट्र-गान बिना सवालों के घेरों में रखे, उन्मुक्त कंठ से गाने को रचा गया है, जिसे यूँ ही गाते रहना चाहिए। यह राष्ट्रीय आस्था से जुड़ी वह बात है, जिसका विकल्प तलाशने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।

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