तृण मूल, कौन तृण , कौन मूल!

तृण, जो धरती से जुड़ कर, धरती को फोड़ कर सूरज की ओर देखता है। मूल,वह जो सृजन का आधार है। दरअसल, इन दिनों में, हमने यह देखा कि धरती से जुड़े लोग, वह होते हैं, जो सुबह किसी ने चाय नहीं दी तो उठ नहीं पाते। उठ नहीं पाते, तो जान नहीं पाते, समझ नहीं पाते।

 

मूल के अधिकारों की बात वह लोग कर रहे हैं, जिन्होंने पश्चिम बंगाल का चेहरा, चरित्र, चाल सब कुछ विकृत कर दिया। रामकृष्ण परमहंस, माँ शारदा, उनके शिष्य विवेकानंद, कवि रविन्द्र, सुभाष मूल में यह थे, इनकी आध्यात्मिक शोध थी, चेतनता का प्रवाह था, सृजनशीलता का प्रकाश था, अद्वितीय शौर्य था या फिर सत्ता के लालच में उन परजीवियों की फ़ौज खड़ी करने का आज की सत्ता शीन पार्टी का विध्वंस कारी लक्ष्य।

 

हर दूसरी बात पर, दूसरे राज्य के लोगों को असभ्य, अभद्र कहने वाला पश्चिम बंगाल का “भोद्रो” समाज यह सब कुछ नहीं देखता या देख कर चुप रहता है, पता नहीं। चुप रहता है तो क्यों, यह भी पता नहीं हुआ आज तक। निष्पक्ष बुद्धिजीवी पत्रकार,जो सर से पावँ तक केवल और केवल ‘भद्र’ होते हैं, उन्होंने बड़ी सभ्यता से अपनी भद्रता का परिचय देते हुए, एक महिला को चुप रहकर भद्रता से सम्मान दिया ,जिसे पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।

 

भद्र और अभद्र की खाई में तृणमूल की काई से फिसलन ज़रा ज़्यादा महसूस हुई, नफ़रत में ओंधे मुँह गिरते लोग, ज़ुबा से बहकते लोग। निश्चित ही कोई बहुत बड़ी वज़ह है इतने ज़्यादा डर और इतने ज़्यादा नफरत की। क्यों डर रहे हैं इतना कि डर के मारे हत्याएँ किए जा रहे हैं। मरे जा रहे हैं, मारे जा रहे हैं। पिछले कुछ सालों में सुरक्षित तो सभी हैं। हां, किसी अनन्य महत्वकांक्षा की पूर्ति नहीं हुई हो, तो वह अलग बात है।

Exit mobile version