“गढ़ आया पर सिंह गया”! फ़िल्म में एक दृश्य में यह कहा गया कि मैंने तानाजी की आँखों में इतिहास को करवट लेते देखे है। यानी वह युग भी हताशा से भरा हुआ था जब राजस्थानी शूरवीरों का इतिहास मानो सुसुप्तावस्था में चला गया था। इतिहास आज भी करवट ले चुका है देश में।
राजस्थानी राजपूत अपने इतिहास को जीवंत देखना चाहता है। भारतवर्ष का इतिहास करवट लेता है तो प्राचीन गौरव नवीन ऊर्जा में मिल कर वर्तमान और आने वाले भविष्य को प्रखर, उन्मुख, आत्मविश्वासी बना सकता है। इतिहास की परतें जब खुलेंगी तो अक्षर-अक्षर शाश्वत हो उठेगा।
“तानाजी” के उत्कृष्ट निर्देशक ‘श्री ओम राउत’ का देश आभारी रहेगा जिन्होंने सिनेमा में इतिहास का एक सुनहरा पन्ना सामने रखा। पन्ने पर हमने देखा कि किस तरह किसी भी सभ्यता के मूल में भावनाओं का बवंडर है – प्रेम, त्याग, गरिमा, देशप्रेम, निष्ठा, ईमानदारी।
देश की मिट्टी के प्रेम में उसमें मिल जाने की उत्कंठा ही शिवभक्ति हो उठती है। यहाँ “ईश्वर” और “देश” दोनों मिलकर मानो एक हो उठते हैं, जितना सच ईश्वर है उतना ही यह देश। मुगलिया सल्तनत न यह समझ सकती थी और न ही कभी यह समझ पाई कि ऐसी कौन-सी अद्भुत शक्ति होती है पत्थर की मूर्तियों में जिसके सम्मुख ली गई प्रतिज्ञा अग्नि की तरह साक्षात हो जाती है।
अपनी मिट्टी को, स्पेस को ऑर्गनाइज, सुस्थापित करना ही स्वराज्य का प्रथम सोपान है। स्वाभिमान, गौरव, आत्मविश्वास से भरी जीजाबाई जैसी माताएँ, सावित्री जैसी पत्नियाँ, कमला जैसी कन्याएं शक्ति का मूर्त रूप बन कर युद्ध में जीत की राह को मार्गी रही हैं।इन गरिमामयी स्त्रियों ने शौर्य के दर्प को कई गुना बढ़ा दिया था।
उदयभान वह हिन्दू राजा है जो औरंगजेब की ही तरह हिंसक, खूंखार, शक्तिशाली होना चाहता है फिर इसके लिए उसे अपने ही लोगों के विरुद्ध क्यों न होना पड़े। उदयभान की महत्वकांक्षा और निर्दयता उसके निजी जीवन का परिणाम है, उसकी हीनता का। पर यह हीनता बहुत ज़्यादा हानि पहुँचाती है। कोंडाणा को जीतकर, उसका सामंत बन कर वह ऊँचा उठना चाहता है ताकि राजपूत कन्या कमला को हासिल कर सके।
उदयभान औरंगजेब और उसके शासन की दहशतगर्दी की नकल है जो एक मूल निवासी की हताशा का परिणाम है। हिंसा से वह स्वयं को मुक्त करना चाहता है, उसे मिट्टी, निष्ठा आदि से कोई सरोकार नहीं। पहाड़ की तरह अडिग रहने वाली तानाजी की निष्ठा, साहस और श्रद्धा समाज के लिए जीवन्त उदाहरण हो जाना चाहिए क्योंकि सभ्यताएँ इन्हीं भावों से सुरक्षित और संरक्षित रह सकती हैं।
देश ऐसे रचनाकारों, बुद्धिजीवियों, फ़िल्म निर्देशको का कृतज्ञ रहेगा जो जन-चेतना के इन सच्चाइयों को दिखा सकें। इतिहास के भीतर सांस्कृतिक परंपराओं और उससे उपजी असंख्य संवेनाओं की अनदेखी है। स्वयं की अनुभूति का सांस्कृतिक अनुभव और सांस्कृतिक बोध सुसुप्तावस्था में है इतिहास में, और इतिहास अब बिना थमे निरंतर को जाना चाहिए। ऐतिहासिक फिल्में समाज को इतिहास से जोड़ उसे स्वाभिमानी और सुदृढ़ बना सकती हैं।
फ़िल्म के नाम को देखें तो यह “तानाजी- द अनसंग वारियर” है, यानी तानाजी की गाथा न कभी गाई गई, न सुनाई गई। ओम राउत द्वारा निर्देशित “लोकमान्य तिलक” पर बनी फिल्म भी देखनी चाहिए। सिनेमा ने इतिहास को थामा है, साहित्य, कला, नृत्य, पत्रकारिता आदि विधाओं को भी इतिहास के पन्नों पर बिखरे अनदेखे हीरे के कणों को कोयले की खान से निकाल बाहर करना चाहिए। हॉल भरा हुआ था। ज़ाहिर है, देश कहीं न कहीं ठहरता ज़रूर है, चाहे वह दिल हो या दिमाग। इस बार हॉल में राष्ट्र गान नहीं हुआ। शायद यह बंद हो चुका है। पर यह अखर गया।