बंगाल की पुरातन संस्कृति से परहेज कब तक?

“कृत्तिवासी रामायण” के रचयिता ‘कृतवास ओझा’ थे जिन्होने पन्द्रहवी सदी के पूर्व में कृत्तिवासी रामायण की रचना की। कृत्तिवासी रामायण में राम-कथा परम्परा को पूरी तरह से भजन-शैली में लिखा गया है, जिसे जनमानस गा सके, संकीर्तन उठा सके। यह रामायण केवल राम-चरित को ही दृष्टिगत नहीं करती बल्कि बंगाल के पंद्रहवी सदी के जन-जीवन को चित्रित करती है। यह रामायण दिखाती है कि राम जन- मानस में व्याप्त हैं, चलायमान हैं, मनुष्य में ईश्वरीय तत्त्व के समाहित होने का प्रयास राम हो जाना है।

 

यह रामचरितमानस का अनुवाद बिल्कुल भी नहीं है बल्कि अपने तरह का काव्य है जिसमें चरित्र, मनुष्य ज़्यादा लगते हैं यानी लोक-मानस, लोक-जीवन में से एक हैं और इसी कारण लोक के ज़्यादा करीब हैं। इतने प्राचीन समय से जिसे सुना, सुनाया और गाया जाता रहा हो, उसके विषय में बहुत बड़े अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन बिल्कुल नहीं जानते और यकीनन उन्होंने इसे कभी सुना भी नहीं होगा।

 

कैसे सुनते, सुने भी तो इस तरह के ग्रथों को बंगाल की वामपंथी सरकारों ने साजिशन पब्लिक स्पेस से हटा दिया होगा, हटवा दिया गया होगा। यही कारण है कि विमर्श में भाग लेने वाले बंगाल के प्रवक्ता भी इसका ज़िक्र नहीं करते, क्योंकि उन्हें नहीं पता, उन्हें नहीं पता, क्योंकि उन्हें पता होने ही नहीं दिया गया। इसी साज़िश की कड़ी को बढ़ावा देने ड्रैकुला जैसे दिखने वाले अर्थशास्त्री राम के नाम को उपद्रव को बढ़ावा देने वाला बताते हैं, वह भी तब जब उन्हें गरीबी पर अपनी बासी हुई थ्योरी को बताने बुलाया गया हो।

 

इन्हें नैरेटिव को सेट करने बुलाया गया था, नैरेटिव जो हत्याएँ करवा सके, घृणा बो सके। रक्त और उत्पात बुद्धिजीवियों की ख़ुराक है, जिसे वो क्रांति का नाम दिया करते हैं। राम के नाम से हत्याएँ करते नहीं लोग, यह फॉल्स नैरेटिव गढ़ कर लोगों को उकसाना और अस्थिरता पैदा करना इनका पसंदीदा शग़ल है। वरना ऐसा क्या है कि “Jai Shri Ram” के उच्चारण पर ममता बनर्जी खाल खिंचवा लेने की बात करती हैं, वह नारा ए तक़बीर पर तो ऐसा कुछ नहीं करती।

 

सांस्कृतिक पराधीनता से स्वतंत्र होने देना कभी नहीं चाहते हैं वामपंथी, जिन्हें भारतीय संस्कृति को दिखाती हर किताब, ग्रंथ, वाक्य, प्रतीक ढकोसला लगता है। नोबल और भारत-रत्न के बाद अब किस और सम्मान की प्रतीक्षा है सेन को, यह तो ममता बनर्जी ही बेहतर समझती होंगी, पर यह एक स्थापित सत्य है कि राम ने अगर सम्पूर्ण आर्यावर्त को रावण जैसे आतताई से मुक्त न किया होता तो न बंगाल होता और न ही वहाँ दुर्गा-पूजा की धूम होती।

 

संस्कृति और समानता का समभाव जो पुरातन इतिहास दिखाता है उसके अंदर ऐसे- ऐसे तथ्य निहित हैं जो हर विघटनकारी ताकतों पर व्राजपात कर सकते हैं, आवश्कता है अंतर्दृष्टि की।

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