आदि यानी आदिम, पहला जो असभ्य रहा, जिसने सभ्यता न देखी, न सुनी बल्कि पशुवत ही व्यवहार करता हो।सृष्टि की उत्पत्ति ग्रंथ में जल से मानी जाती है। यानी कि मछली ही प्रथम जीव थी, ऐसा विज्ञान कहता है, ईसाई धर्मग्रंथ कहते हैं और हमारे यहां प्रथम अवतार “मत्स्यावतार” है। जीव जो केवल जल में ही जीवित रहते हैं।
फिर सृष्टि की रचना में, जो विज्ञान पुष्टि करता है आते हैं amphibians, turtle , यानी ऐसे जीव जो जल और थल दोनों जगहों पर समान रूप में रह सकते हों। हमारे यहां cosmic orgin में इसे नाम दिया गया ” “कूर्मवतार”। फिर वाराहवतार की उत्पत्ति हुई। ऐसे जीव जो चारो पैरों पर खड़े होकर चल सकता था, दौड़ सकता था, बहुत बलशाली था, जिसने पूरी पृथ्वी पर घूम कर यह जान लिया था कि पृथ्वी गोल है। चित्रों में वाराहवतार अपने नथुनों पर पृथ्वी को उठाए दिखते हैं।
फिर उत्पत्ति होती है, नरसिंहवतार की। इनमें पैश्विक दिव्यता का भान होता है। कुद्ध रुप, प्रचण्ड बलशाली , दया का भाव प्रचुर है इनमें। फिर आते हैं परशुराम। यहां rationality की कमी है। क्रोध की अधिकता है। मनुष्य अपनी इंद्रियों के आधीन है और प्राथमिकता उसे ही दे रहा है।
फिर आता है “वामनावतार”। मनुष्य बनने की प्रक्रिया अब शुरु हो चुकी है। छोटे कद के मनुष्यों से पृथ्वी पट चुकी है। अहंकार, दुर्भावना, घृणा को खत्म कर भक्ति, ध्यान, तप को मनुष्यत्व का गुण बनाना है और इसी कार्य के लिए विष्णु वामनावतार लेते हैं।
अब आते हैं “राम” जिनका युग मर्यादा का युग है। यहां हमें दशरथ जैसे पिता दिखते हैं जो पुत्र के साथ हुए अन्याय को सहन नहीं कर पाते और प्राण त्याग देते हैं। राम जैसे आज्ञाकारी पुत्र, समर्पित पति, भाई और न्यायप्रिय राजा दिखते हैं। सीता, उर्मिला जैसी पत्नियां हैं, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न जैसे मर्यादित भाई हैं। राक्षसराज भी महापंडित, ज्ञानी है जिसकी स्त्री सतियों में गिनी जाती है। मनुष्य और पशु के बीच की रेखा बहुत क्षीण है, उनके बीच संवाद होता है, गहरी मैत्री है और भक्ति की पराकाष्ठा है। यहां जीवन अद्वितीय नैतिकता की नींव पर टिका है। सब कुछ balanced, proper, principled है। यही राम के युग की पहचान है।
कृष्ण का युग कला, कोमलता ,संगीत, प्रेम,वास्तुकला, अद्भुत इंजीनियरिंग का युग है। कृष्ण की द्वारिका नगरी अपने आप में उत्कृष्ठ स्थापत्य का उदाहरण है, फिर इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर आदि। यह राजनीति, धर्मनीति का युग है। कृष्ण कर्मयोगी स्वयं भी हैं और इसे ही सिद्धांत मानकर चलते हैं। कृष्णावतार भावों और भंगिमाओं का उत्कृष्ठ बोध है।
किस तरह राम आदिपुरूष हुए यह कहना युगों के क्रम को झुठला कर पूरी सृष्टि का अनादर है, जिसे श्री हरि विष्णु ने क्रमशः समय की बेदी पर परीक्षण कर रचा है।